लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
प्रात:काल था।
चमड़े की खरीद
हो रही थी।
सैकड़ों चमार बैठे
चिलम पी रहे
थे। यही एक
समय था, जब
ताहिर अली को
अपने गौरव का
कुछ आनंद मिलता
था। इस वक्त
उन्हें अपने महत्तव
का हलका-सा
नशा हो जाता
था। एक चमार
द्वार पर झाड़ू
लगाता, एक उनका
तख्त साफ करता,
एक पानी भरता।
किसी को साग-भाजी लाने
के लिए बाजार
भेज देते और
किसी से लकड़ी
चिराते। इतने आदमियों
को अपनी सेवा
में तत्पर देखकर
उन्हें मालूम होता था
कि मैं भी
कुछ हूँ। उधार
जैनब और रकिया
परदे में बैठी
पानदान का खर्च
वसूल करतीं। साहब
ने ताहिर अली
को दस्तूरी लेने
से मना किया
था, स्त्रिायों को
पान-पत्तो का
खर्च लेने का
निषेधा न किया
था। इस आमदनी
से दोनों ने
अपने-अपने लिए
गहने बनवा लिए
थे। ताहिर अली
इस रकम का
हिसाब लेना छोटी
बात समझते थे।
इसी समय जगधार
आकर बोला-मुंसीजी,
हिसाब कब तक
चुकता कीजिएगा? मैं
कोई लखपती थोड़े
ही हूँ कि
रोज मिठाइयाँ देता
जाऊँ, चाहे दाम
मिलें या न
मिलें। आप जैसे
दो-चार गाहक
और मिल जाएँ,
तो मेरा दिवाला
ही निकल जाए।
लाइए, रुपये दिलवाइए,
अब हीला-हवाला
न कीजिए, गाँव-मुहल्ले की बहुत
मुरौवत कर चुका।
मेरे सिर भी
तो महाजन का
लहना-तगादा है।
यह देखिए कागद,
हिसाब कर दीजिए।
देनदारों के लिए
हिसाब का कागज
यमराज का परवाना
है। वे उसकी
ओर ताकने का
साहस नहीं कर
सकते। हिसाब देखने
का मतलब है,रुपये अदा करना।
देनदार ने हिसाब
का चिट्ठा हाथ
में लिया और
पानेवाले का हृदय
आशा से विकसित
हुआ। हिसाब का
परत हाथ में
लेकर फिर कोई
हीला नहीं किया
जा सकता। यही
कारण है कि
देनदारों को खाली
हाथ हिसाब देखने
का साहस नहीं
होता।
ताहिर अली ने
बड़ी नम्रता से
कहा-भई, हिसाब
सब मालूम है,
अब बहुत जल्द
तुम्हारा बकाया साफ़ हो
जाएगा। दो-चार
दिन और सब्र
करो।
जगधार-कहाँ तक
सबर करूँ साहब?
दो-चार दिन
करते-करते तो
महीनों हो गए।
मिठाइयाँ खाते बखत
तो मीठी मालूम
होती हैं, दाम
देते क्यों कड़घवा
लगता है?